जब सोचा कुछ नया करने को सिर्फ 1 धुंदली सी मंजिल थी जिस तक जाने के लिए न कोई रास्ता था न कोई प्रेणना. एक दिन देखा कुछ काले कपड़ो में नौजवानों को चिल्लाते हुए पहले थोड़ी मुस्करात आई मेरे चहरे पर फिर धीरे धीरे एक आवाज़ मेरे कानों को चीरती हुयी निकली जब देखा उस और तो उस्सी आवाज़ में वो आक्रोश वो गुस्सा भी था जो शायेद हम कभी अपनी जिंदगी में लाने से डरते है और फिर उस्सी आवाज़ के साथ नाटक का मध्यांतर हुआ..कुछ लोगों ने सोचा की नाटक यहीं खत्म हो गया पर असली नाटक वहा से शुरू हुआ था...उस दिन उस आवाज़ ने उस गुस्से ने मुझे इतनी अन्दर तक तोड़ दिया की उस्सी आवाज़ को सुनने के लिए में हर रोज़ पूरी दिल्ली में भटकता, कुछ दोस्त मुझे पागल कहते थे तो कुछ सनकी...फिर आखिरकार मैंने सोच ही लिया उस संस्था के साथ जुड़ने का जहाँ से मुझे अपनी मंजिल थोड़ी साफ़ होती दिख रही थी....और रास्ते पर चलने के लिए एक प्रेणना भी मिल गयी जिसके सहारे में हर रोज़ अपनी एक नयी शुरुवात करता. आज उस्सी रास्ते पर चलते चलते १ साल हो गया और साथ ही धुंदली मंजिल का बादल थोडा थोडा साफ़ होता दिख रहा था इस एक साल में काफी बार गिरा फिर उठा...और जाना की "गिरना गलत नहीं है गिर का न उठना गलत है" और भी काफी कुछ सिखाया उस गुरु ने जो शायेद शब्दों में ब्यान नहीं हो सकता...पर मेरे व्यक्तित्व में साफ़ झलकता है....और "अस्मिता" का शुक्ष्म मतलब जाना "पहचान" जो हम सब एक समय पर आकर कहीं न कहीं खोने से लगते हैं उसे बनाने में मेरा साथ दिया...
👏🙌
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